बरषहिं जलद स्वाध्याय

बरषहिं जलद स्वाध्याय

बरषहिं जलद स्वाध्याय इयत्ता दहावी हिंदी

सूचना के अनुसार कृतियाँ कीजिए :-

1) कृति पूर्ण कीजिए :

उत्तर :

2) निम्न अर्थ को स्पष्ट करने वाली पंक्तियाँ लिखिए :

1. संतों की सहनशीलता —————-

उत्तर :

बूंद अघात सहहिं गिरि कैसे।

खल के बचन संत सह जैसे।।

2. कपूत के कारण कुल की हानि _____________

उत्तर :

जिमि कपूत के उपजे, कुल सद्धर्म नसाहिं।।

3) तालिका पूर्ण कीजिए :

इन्हेंयह कहा है
1) _____बटु समुदाय
2) सज्जनों के सद्गुण ——–

उत्तर :

इन्हेंयह कहा है
1) दादुर बटु समुदाय
2) सज्जनों के सद्गुण तालाब का जल

4) जोड़ियाँ मिलाइए :

‘अ’ समूह उत्तर ‘ब’ समूह
1.दमकती बिजली दुष्ट की मित्रता
2.नव पल्लव से भरा वृक्ष साधक के मन का विवेक
3.उपकारी की संपत्ति ससि संपन्न पृथ्वी
4.भूमि की माया से लिपटा जीव

उत्तर :

‘अ’ समूह उत्तर ‘ब’ समूह
1.दमकती बिजली दुष्ट की मित्रतादुष्ट की मित्रता
2.नव पल्लव से भरा वृक्ष साधक के मन का विवेकसाधक के मन का विवेक
3.उपकारी की संपत्ति ससि संपन्न पृथ्वीससि संपन्न पृथ्वी
4.भूमि की माया से लिपटा जीवमाया से लिपटा जीव

5) इनके लिए पद्यांश में प्रयुक्त शब्द :

उत्तर :

6) प्रस्तुत पद्यांश से अपनी पसंद की किन्हीं चार पंक्तियों का सरल अर्थ लिखिए

उत्तर :

प्रस्तुत पद्यांश की प्रथम चार पंक्तियाँ मुझे सर्वाधिक पसंद है। इनके द्वारा गोस्वामी तुलसीदास जी बताते हैं कि प्रभु श्रीराम अपने भी लक्ष्मण से कह रहे हैं, हे भाई, लक्ष्मण ! आकाश में बादल घमंड से घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, किंतु प्रिया अर्थात सीता के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली रह-रहकर बादलों के बीच दमक रही है। उसकी चमक में उसी तरह ठहराव नहीं है, जिस तरह दृष्ट व्यक्ति की प्रीति में स्थिरता नही होती है। बादल पृथ्वी के समीप आकर ऐसी वर्षा कर रहे हैं, जैसे कोई विद्वान व्यक्ति ज्ञान होने पर नम्र होकर झुक जाता है। उधर वर्षा की बूंदे पहाड़ पर गिरते हुए आघात कर रही हैं, लेकिन पहाड़ इस आघात को वैसे ही सह लेता है, जैसे संत जन दुष्टों की बातों को सह लेते हैं।

उपयोजित लेखन

कहानी लेखन :

‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई’ इस सुवचन पर आधारित कहानी लेखन कीजिए

उत्तर :

बात आजादी मिलने के बहुत पहले की है। तब देश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की पढ़ाई के लिए बहुत कम विश्वविद्यालय थे। विद्यार्थियों को दूर-दूर स्थानों पर जाकर शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती थी और वही टिककर पढ़ना पड़ता था। विद्यार्थियों की इस परेशानी को दूर करने के लिए एक महानुभाव ने अपने शहर में विश्वविद्यालय स्थापित करने का प्रण किया।

इसके लिए उन्होंने सारे देश का दौरा किया और जहाँ से जो भी धन मिला, एकत्र किया | एक बार किसी व्यक्ति ने उन्हें बताया कि आप कलकत्ता के फलाँ सेठ के पास जाइए। वहाँ आपको अवश्य कुछ धन मिलेगा।वे पहुँच गए उनके पास। उन्होंने सेठ जी से अपना उद्देश्य बताया। सेठ जी ने उन्हें कुछ देर इंतजार करने के लिए कहा और वे अपने काम में लग गए। दोपहर से शाम हो गई। सेठ जी ने उन्हें नहीं बुलाया। वे निराश हो गए थे। इतने में सेठ जी अपने केबिन से बाहर आए। वे सज्जन खड़े हो गए और बोले, “सेठ जी मुझे आज्ञा दीजिए, मैं चलूँ।” सेठ जी ने कहा, “बैठिए भाई, बैठिए ! मैं आपका ही काम कर रहा था। ये लीजिए अपने परोपकार के काम में मेरा छोटा-सा सहयोग ! इस समय मैं और कुछ नहीं दे पाऊँगा।” सेठ जी ने एक चेक उन सज्जन के हाथ में थमा दिया।

उन महाशय ने चेक पर नजर डाली – ‘सात लाख रुपए !’ उनके मुँह से निकला, “सेठ जी, मुझे तो लगा था, मुझे यहाँ से खाली हाथ जाना पड़ेगा, पर आपने तो….।”

“बस… बस !” उन्होंने उन सज्जन की बात काटते हुए कहा, “आप परोपकार का काम कर रहे हैं, मुझसे जो बन पड़ा, मैंने भी सहयोग दे दिया।” इस धन से विश्वविद्यालय के कई काम पूरे हुए।

विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए यह धन एकत्र करने वाले व्यक्ति थे महामना मदनमोहन मालवीय और उन्होंने जिस विश्वविद्यालय का निर्माण किया, वह था ‘बनारस हिंदू विश्वविद्यालय।’

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